Jain Story - Paryushan Parv Story

Jain Story



Jain Story

मानव जीवन का परम उद्देश्य अपनी आत्मा को उस परम शिखर पर विराजमान करना है, जहां प्रभु व अपनी आत्मा की समस्त दूरियां मिट जाएं तथा परमात्मा के पुनीत चरणों में अपनी आत्मा भी समर्पित होकर परमपद मोक्ष की प्राप्ति कर सकें। 

भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष में आने वाले ये 'पर्वाधिराज पर्युषण पर्व' जैन धर्म के दिगंबर अम्नाय में 'आत्मप्रक्षालन' तथा 'पाप विमोचन' का परम अवसर है। ये दस दिन जैन धर्म के दस लक्षणों को दर्शाते हैं, जिनको अपने जीवन में अवतरित कर मानव मुक्ति पथ का पावन मार्ग प्रशक्त कर सकता है। इसीलिए इस पर्व को 'दसलाक्षिणी' पर्व भी कहा गया है। 

  • jain story
  • mahavir swami story in gujarati
  • 24 tirthankar stories
  • jain ramayana
  • jain stories in hindi
  • 24 tirthankar stories in hindi
  • story of mahavira
  • chandanbala story
  • the story of mahavira
  • jain stories in gujarati
  • jain stories for kids
  • jain short stories in english
  • mahavir swami stories

Jain Story

  (1) दशलक्षण वृत कथा      

     धातकीखण्ड द्वीप के पूर्वविदेह क्षेत्र में विशाल नाम का एक नगर है। वहाँ का प्रियंकर नाम का राजा अत्यंत नीतिनिपुण और प्रजावत्सल था। रानी का नाम प्रियंकरा था, और इसके गर्भ से उत्पन्न हुई कन्या का नाम मृगांकलेखा था।


Jain Story

Paryashan parv 2020

  इसी राजा के मंत्री का नाम मतिशेखर था। इस मंत्री के उसकी शशिप्रभा स्त्री के गर्भ से कमलसेना नाम की कन्या थी।इसी नगर के गुणशेखर नामक एक सेठ के यहाँ उसकी शीलप्रभा नाम की सेठानी से एक कन्या मदनवेगा नाम की हुई थी और लक्षभट नामक ब्राह्मण के घर चन्द्रभागा भार्या से रोहिणी नाम की कन्या हुई थी।

Das lakshan parv 2020

  ये चारों (मृगांकलेखा, कमलसेना, मदनवेगा और रोहिणी) कन्याएं अत्यंत रूपवान, गुणवान तथा बुद्धिमान थी। वे सदैव धर्माचरण में सावधान रहती थीं। एक समय बसंत ऋतु में ये चारों कन्याएँ अपने-अपने माता-पिता की आज्ञा लेकर वनक्रीड़ा के लिए निकलीं, सो भ्रमण करती-करती कुछ दूर निकल गर्इं। जबकि ये वन की स्वाभाविक शोभा को देखकर आल्हादित हो रही थीं कि उसी समय उनकी दृष्टि उस वन में विराजमान श्री महामुनिराज पर पड़ी और वे विनयपूर्वक उनको नमस्कार करके वहाँ बैठ गर्इं और धर्मोपदेश सुनने लगीं। पश्चात् मुनि तथा श्रावकों का द्विविध प्रकार उपदेश सुनकर वे चारों कन्याएँ हाथ जोड़कर पूछने लगीं-हे नाथ! यह तो हमने सुना, अब दया करके हमको ऐसा मार्ग बताइये कि जिससे इस पराधीन स्त्री पर्याय तथा जन्म-मरणादि के दु:खों से छुटकारा मिले।

Jain paryashan parv 2020

  तब श्री गुरु बोले-बालिकाओं! सुनो-यह जीव अनादिकाल से मोहभाव को प्राप्त हुए विपरीत आचरण करके ज्ञानावरणादि अष्टकर्मों को बांधता है और फिर पराधीन हुवा संसार में नाना प्रकार के दु:ख भोगता है। सुख यथार्थ में कहीं बाहर से नहीं आता है, न कोई भिन्न पदार्थ ही हैं, किन्तु वह (सुख) अपने निकट ही आत्मा में, अपने ही आत्मा का स्वभाव है, सो जब तीव्र उदय होता है, उस समय यह जीव अपने उत्तमक्षमादि गुणों को (जो यथार्थ में सुख-शांति स्वरूप ही है) भूलकर इनसे विपरीत क्रोधादि भावों को प्राप्त होता है और इस प्रकार स्व पर की हिंसा करता है। सो कदाचित् यह अपने स्वरूप का विचार करके अपने चित्त को उत्तमक्षमादि गुणों से रंजित करे, तो नि:संदेह इस भव और परभव में सुख भोगकर परमपद (मोक्ष) को प्राप्त कर सकता है। स्त्री पर्याय से छुटना तो कठिन ही क्या है? इसलिए पुत्रियों! तुम मन, वचन, काय से इस उत्तम दशलक्षण रूप धर्म को धारण करके यथाशक्ति व्रत पालो, तो नि:संदेह मनवांछित (उत्तम) फल पाओगी।

Jain Story

______________________________________________

 यह भी देखें ⬇️⬇️⬇️⬇️⬇️⬇️

kshamavani parv 2020|| 

Paryushan Parv wishes 2020 

______________________________________________

Paryashan parv jain



Jain Story

  अब इस दशलक्षण व्रत की विधि कहते हैं-


  भादों, माघ और चैत्र मास के शुक्ल पक्ष में पंचमी से चतुर्दशी तक १० दिन पर्यंत व्रत किया जाता है। दशों दिन त्रिकाल सामायिक, प्रतिक्रमण, वंदना, पूजन, अभिषेक, स्तवन, स्वाध्याय तथा धर्मचर्चा आदि कर और क्रम से पंचमी को ‘‘ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलसमुद्गताय उत्तमक्षमाधर्माङ्गाय नम:’’ इस मंत्र का १०८ बार एक-एक समय, इस प्रकार दिन में ३२४ बार तीन काल सामायिक के समय जाप्य करे और इस उत्तम क्षमा गुण की प्राप्ति के लिए भावना भावे तथा उसके स्वरूप का बारम्बार चिन्तवन करे। इसी प्रकार-

Paryashan parv in hindi

  षष्ठी को ‘‘ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलसमुद्गताय उत्तममार्दवधर्माङ्गाय नम:’’

  सप्तमी को ‘‘ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलसमुद्गताय उत्तमआर्जवधर्माङ्गाय नम:’’

  अष्टमी को ‘‘ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलसमुद्गताय उत्तमसत्यधर्माङ्गाय नम:’’

  नवमी को ‘‘ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलसमुद्गताय उत्तमशौचधर्माङ्गाय नम:’’

  दशमी को ‘‘ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलसमुद्गताय उत्तमसंयमधर्माङ्गाय नम:’’

  एकादशी को ‘‘ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलसमुद्गताय उत्तमतपोधर्माङ्गाय नम:’’

  द्वादशी को ‘‘ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलसमुद्गताय उत्तमत्यागधर्माङ्गाय नम:’’

  त्रयोदशी को ‘‘ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलसमुद्गताय उत्तमआविंâचन्यधर्माङ्गाय नम:’’

  चतुर्दशी को ‘‘ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलसमुद्गताय उत्तमब्रह्मचर्यधर्माङ्गाय नम:’’

  इत्यादि मंत्रों का जाप करके भावना भावे।

Paryashan parv 2020

  समस्त दिन स्वाध्याय पूजादि धर्मकार्यों मेें बिताये, रात्रि को जागरण भजन करे, सब प्रकार के राग-द्वेष व क्रोधादि कषाय तथा इन्द्रिय विषयों को बढ़ाने वाली विकथाओं का तथा व्यापारादि समस्त प्रकार के आरंभों का सर्वथा त्याग करे।

  दसों दिन यथाशक्ति प्रोषध (उपवास), बेला, तेला आदि करे अथवा ऐसी शक्ति न हो तो एकाशन, ऊनोदर तथा रस त्याग करके करे, परन्तु कामोत्तेजक, सचिक्कण, मिष्ट-गरिष्ठ (भारी) और स्वादिष्ट भोजनों का त्याग करे तथा अपना शरीर स्वच्छ खादी के कपड़ों से ही ढ़के। बढ़िया वस्त्रालंकार न धारण करे और रेशम, ऊन तथा पैâन्सी परदेशी व मिलों के बने वस्त्र तो छुए भी नहीं, क्योंकि वे अनंत जीवों के घात से बनते हैं और कामादिक विकारों को बढ़ाने वाले होते हैं।

  इस कारण यह व्रत दश वर्ष तक पालन करने के पश्चात् उत्साह सहित उद्यापन करे अर्थात् छत्र, चमर आदि मंगल द्रव्य, जपमाला, कलश, वस्त्रादि धर्मोपकरण प्रत्येक दश-दश श्रीमंदिर जी में पधराना चाहिए तथा पूजा, विधानादि महोत्सव करना चाहिए, दुखित, भुखितों को भोजनादि दान देना चाहिए।

Das lakshan parv

  यह उपदेश व व्रत की विधि सुन उन चारों कन्याओं ने मुनिराज की साक्षीपूर्वक इस व्रत को स्वीकार किया और निज घरों को गर्इं। पश्चात् दश वर्ष तक उन्होंने यथाशक्ति व्रत पालन कर उद्यापन किया सो उत्तमक्षमादि धर्मों का अभ्यास हो जाने से उन चारों कन्याओं का जीवन सुख और शांतिमय हो गया। वे चारों कन्याएं इस प्रकार सर्व स्त्री समाज में मान्य हो गई। पश्चात् वे अपनी आयु पूर्ण कर अंत समय समाधिमरण करके महाशुक्र नामक दशवें स्वर्ग में अमरगिरि, अमरचूल, देवप्रभु और पद्मसारथी नामक महद्र्धिक देव हुए।

Jain parv

  वहाँ पर अनेक प्रकार के सुख भोगते हुए अकृत्रिम जिनचैत्यालयों की भक्ति-वंदना करते हुए अपनी आयु पूर्ण कर वहाँ से चले, सो जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में मालवा प्रांत के उज्जैन नगर में मूलभद्र राजा के घर लक्ष्मीमती नाम की रानी के गर्भ से पूर्णकुमार, देवकुमार, गुणचन्द्र और पद्मकुमार नाम के रूपवान व गुणवान पुत्र हुए और भले प्रकार बाल्यकाल व्यतीत करके कुमारकाल में सब प्रकार की विद्याओं में निपुण हुए। पश्चात् इन चारों का ब्याह नन्दननगर के राजा इण तथा उनकी पत्नी तिलकसुन्दरी के गर्भ से उत्पन्न कलावती, ब्राह्मी, इन्दुगात्री और वंâवूâ नाम की चार अत्यंत रूपवान तथा गुणवान कन्याओं के साथ हुआ और ये दम्पत्ति प्रेमपूर्वक कालक्षेप करने लगे।

Parv paryushan

  एक दिन राजा मूलभद्र ने आकाश में बादलोें को बिखरे देखकर संसार के विनाशीक स्वरूप का चिन्तवन किया और द्वादशानुप्रेक्षा भायी। पश्चात् ज्येष्ठ पुत्र को राज्यभार सौंपकर आप परम दिगम्बर मुनि हो गये। इन चारों पुत्रों ने यथायोग्य प्रजा का पालन व मनुष्योचित भोग भोगकर कोई एक कारण पाकर जिनेश्वरी दीक्षा ली और महान तपश्चरण करके केवलज्ञान को प्राप्त हो, अनेक देशों में विहार करके धर्मोपदेश दिया। फिर शेष अघातिया कर्मों का भी नाशकर आयु के अंत में योग निरोध करके परमपद (मोक्ष) को प्राप्त हो गये।

Digambar jain paryushan parv 2020

  इस प्रकार उक्त चारों कन्याओं ने विधिपूर्वक इस व्रत को धारण करके स्त्रीलिंग छेदकर स्वर्ग तथा मनुष्यगति के सुख भोगकर मोक्षपद प्राप्त किया। इसी प्रकार जो और भव्य जीव मन, वचन, काय से  इस व्रत को पालन करेंगे वे भी उत्तमोत्तम सुखों को प्राप्त होंगे|

Jain paryushan parv



Jain Story

 (2) दशलक्षण-धर्म पूजा(कविश्री द्यानतरायजी)


(अडिल्ल छन्द)

  उत्तमछिमा मारदव आरजव भाव हैं,

  सत्य शौच संयम तप त्याग उपाव हैं |

  आकिंचन ब्रह्मचर्य धरम दश सार हैं,

  चहुँगति दु:ख तें काढ़ि मुकति करतार हैं ||

  ओं ह्रीं श्री उत्तमक्षमादि-दशलक्षणधर्म! अत्र अवतर अवतर संवौषट्! (आह्वाननम्)

  ओं ह्रीं श्री उत्तमक्षमादि-दशलक्षणधर्म!अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:! (स्थापनम्)

  ओं ह्रीं श्री उत्तमक्षमादि-दशलक्षणधर्म! अत्र मम सत्रिहितो भव भव वषट्! (सत्रिधिकरणम्)

Paryushan parv

  (सोरठा छन्द)

  हेमाचल की धार, मुनि-चित सम शीतल सुरभि |

  भव-आताप निवार, दस-लक्षण पूजूं सदा ||

  ओं ह्रीं श्री उत्तमक्षमा-मार्दव-आर्जव-सत्य-शौच-संयम-तप-त्याग- आकिञ्चन्य-ब्रह्मचर्येति दशलक्षणधर्माय जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।

Paryushan parv 2020

  चंदन-केशर गार, होय सुवास दशों दिशा |

  भव-आताप निवार, दस-लक्षण पूजूं सदा ||

  ओं ह्रीं श्री उत्तमक्षमादि-दशलक्षणधर्माय भवताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ।

Das lakshan parv 2020

  अमल अखंडित सार, तंदुल चंद्र-समान शुभ |

  भव-आताप निवार, दस-लक्षण पूजूं सदा ||

  ओं ह्रीं श्री उत्तमक्षमादि-दशलक्षणधर्माय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।


  फूल अनेक प्रकार, महकें ऊरध-लोक लों |

  भव-आताप निवार, दस-लक्षण पूजूं सदा ||

  ओं ह्रीं श्री उत्तमक्षमादि-दशलक्षणधर्माय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।

Jain paryushan parv 2020

  नेवज विविध निहार, उत्तम षट्-रस संजुगत |

  भव-आताप निवार, दस-लक्षण पूजूं सदा ||

  ओं ह्रीं श्री उत्तमक्षमादि-दशलक्षणधर्माय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

Jain Story


  बाति कपूर सुधार, दीपक-जोति सुहावनी |

  भव-आताप निवार, दस-लक्षण पूजूं सदा ||

  ओं ह्रीं श्री उत्तमक्षमादि-दशलक्षणधर्माय मोहांधकार-विनाशनाय दीपंं निर्वपामीति स्वाहा ।

Paryushan parv jain

  अगर धूप विस्तार, फैले सर्व सुगंधता |

  भव-आताप निवार, दस-लक्षण पूजूं सदा ||

  ओं ह्रीं श्री उत्तमक्षमादि-दशलक्षणधर्माय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।


  फल की जाति अपार, घ्राण-नयन-मन-मोहने |

  भव-आताप निवार, दस-लक्षण पूजूं सदा ||

  ओं ह्रीं श्री उत्तमक्षमादि-दशलक्षणधर्माय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।

Paryushan parv in hindi

  आठों दरब संवार, ‘द्यानत’ अधिक उछाह सों

  भव-आताप निवार, दस-लक्षण पूजूं सदा ||

  ओं ह्रीं श्री उत्तमक्षमादि-दशलक्षणधर्माय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।


  (दस धर्म-अंग पूजा)

  (सोरठा)

  पीड़ें दुष्ट अनेक, बाँध मार बहुविधि करें |

  धरिये छिमा-विवेक, कोप न कीजे पीतमा ||

  (चौपार्इ छन्द)

  उत्तम-छिमा गहो रे भार्इ, इहभव जस परभव सुखदार्इ |

  गाली सुनि मन खेद न आनो, गुन को औगुन कहे अयानो ||

  (गीता छन्द)

  कहि है अयानो वस्तु छीने, बाँध मार बहुविधि करे |

  घर तें निकारे तन विदारे, बैर जो न तहाँ धरे ||

  तैं करम पूरब किये खोटे, सहे क्यों नहिं जीयरा |

  अति क्रोध-अगनि बुझाय प्रानी, साम्य-जल ले सीयरा ||

  ओं ह्रीं श्री उत्तम क्षमाधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

Das lakshan parv

  मान महा विषरूप, करहि नीच-गति जगत् में |

  कोमल-सुधा अनूप, सुख पावे प्रानी सदा ||

  उत्तम-मार्दव-गुन मन माना, मान करन को कौन ठिकाना |

  बस्यो निगोद माहि तें आया, दमड़ी-रूकन भाग बिकाया ||

  रूकन बिकाया भाग वशतें, देव इकइंद्री भया |

  उत्तम मुआ चांडाल हूवा, भूप कीड़ों में गया ||

  जीतव्य जोवन धन गुमान, कहा करे जल-बुदबुदा |

  करि विनय बहु-गुन बड़े जन की, ज्ञान का पावें उदा ||

  ओं ह्रीं श्री उत्तम मार्दवधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

Jain paryushan parv

  कपट न कीजे कोय, चोरन के पुर ना बसें |

  सरल-सुभावी होय, ताके घर बहु-संपदा ||

  उत्तम आर्जव-रीति बखानी, रंचक दगा बहुत दु:खदानी |

  मन में हो सो वचन उचरिये, वचन होय सो तन सों करिये ||

  करिये सरल तिहुँ जोग अपने, देख निरमल आरसी |

  मुख करे जैसा लखे तैसा, कपट-प्रीति अंगार-सी ||

  नहिं लहे लछमी अधिक छल करि, कर्म-बंध-विशेषता |

  भय-त्यागि दूध बिलाव पीवे, आपदा नहिं देखता ||

  ओं ह्रीं श्री उत्तम आर्जवधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

Digambar jain paryushan parv 2020

  कठिन-वचन मत बोल, पर-निंदा अरु झूठ तज |

  साँच जवाहर खोल, सतवादी जग में सुखी ||

  उत्तम-सत्य-वरत पालीजे, पर-विश्वासघात नहिं कीजे |

  साँचे-झूठे मानुष देखो, आपन-पूत स्वपास न पेखो ||

  पेखो तिहायत पु़रुष साँचे, को दरब सब दीजिए |

  मुनिराज-श्रावक की प्रतिष्ठा, साँच-गुण लख लीजिये ||

  ऊँचे सिंहासन बैठि वसु-नृप, धरम का भूपति भया |

  वच-झूठ-सेती नरक पहुँचा, सुरग में नारद गया ||

  ओं ह्रीं श्री उत्तम सत्यधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

Parv paryushan

  धरि हिरदै संतोष, करहु तपस्या देह सों |

  शौच सदा निरदोष, धरम बड़ो संसार में ||

  उत्तम शौच सर्व-जग जाना, लोभ ‘पाप को बाप’ बखाना |

  आशा-पास महादु:खदानी, सुख पावे संतोषी प्रानी ||

  प्रानी सदा शुचि शील-जप-तप, ज्ञान-ध्यान प्रभाव तें |

  नित गंग जमुन समुद्र न्हाये, अशुचि-दोष स्वभाव तें ||

  ऊपर अमल मल-भर्यो भीतर, कौन विधि घट शुचि कहे |

  बहु देह मैली सुगुन-थैली, शौच-गुन साधु लहे ||

  ओं ह्रीं श्री उत्तम शौचधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

Jain parv

  काय-छहों प्रतिपाल, पंचेन्द्री-मन वश करो |

  संयम-रतन संभाल, विषय-चोर बहु फिरत हैं ||

  उत्तम संजम गहु मन मेरे, भव-भव के भाजें अघ तेरे |

  सुरग-नरक-पशुगति में नाहीं, आलस-हरन करन सुख ठाहीं ||

  ठाहीं पृथी जल आग मारुत, रूख त्रस करुना धरो |

  सपरसन रसना घ्रान नैना, कान मन सब वश करो ||

  जिस बिना नहिं जिनराज सीझे, तू रुल्यो जग-कीच में |

  इक घरी मत विसरो करो नित, आव जम-मुख बीच में ||

  ओं ह्रीं श्री उत्तम संयमधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

Das lakshan parv

  तप चाहें सुरराय, करम-शिखर को वज्र है |

  द्वादश विधि सुखदाय, क्यों न करे निज सकति सम ||

  उत्तम तप सब-माँहिं बखाना, करम-शैल को वज्र-समाना |

  बस्यो अनादि-निगोद-मँझारा, भू-विकलत्रय-पशु-तन धारा ||

  धारा मनुष्-तन महा-दुर्लभ, सुकुल आयु निरोगता |

  श्री जैनवानी तत्त्वज्ञानी, भर्इ विषय-पयोगता ||

  अति महादुरलभ त्याग विषय, कषाय जो तप आदरें |

  नर-भव अनूपम कनक-घर पर, मणिमयी-कलसा धरें ||

  ओं ह्रीं श्री उत्तम तपधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

Paryushan parv 2020

  दान चार परकार, चार संघ को दीजिए |

  धन बिजुली उनहार, नर-भव लाहो लीजिए ||

  उत्तम त्याग कह्यो जग सारा, औषध शास्त्र अभय आहारा |

  निहचै राग-द्वेष निरवारे, ज्ञाता दोनों दान संभारे ||

  दोनों संभारे कूपजल-सम, दरब घर में परिनया |

  निज हाथ दीजे साथ लीजे, खाय-खोया बह गया ||

  धनि साधु शास्त्र अभय-दिवैया, त्याग राग-विरोध को |

  बिन दान श्रावक-साधु दोनों, लहें नाहीं बोध को ||

  ओं ह्रीं श्री उत्तम त्यागधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

Jain Story

  परिग्रह चौबीस भेद, त्याग करें मुनिराज जी |

  तिसना भाव उछेद, घटती जान घटाइए ||

  उत्तम आकिंचन गुण जानो, परिग्रह-चिंता दु:ख ही मानो |

  फाँस तनक-सी तन में साले, चाह लंगोटी की दु:ख भाले ||

  भाले न समता सुख कभी नर, बिना मुनि-मुद्रा धरे |

  धनि नगन पर तन-नगन ठाढ़े, सुर-असुर पायनि परें ||

  घर-माँहिं तिसना जो घटावे, रुचि नहीं संसार-सों |

  बहु-धन बुरा हू भला कहिये, लीन पर उपगार कों ||

  ओं ह्रीं श्री उत्तम आकिंचन्यधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

Jain parv

  शील-बाड़ नौ राख, ब्रह्म-भाव अंतर लखो |

  करि दोनों अभिलाख, करहु सफल नर-भव सदा ||

  उत्तम ब्रह्मचर्य मन आनो, माता-बहिन-सुता पहिचानो |

  सहें बान- वरषा बहु सूरे, टिकें न नैन-बान लखि कूरे ||

  कूरे तिया के अशुचि तन में, काम-रोगी रति करें |

  बहु मृतक सड़हिं मसान-माँहीं, काग ज्यों चोंचैं भरें ||

  संसार में विष-बेल नारी, तजि गये जोगीश्वरा |

  ‘द्यानत’ धरम दस पैंडि चढ़ि के, शिव-महल में पग धरा ||

  ओं ह्रीं श्री उत्तम ब्रह्मचर्यधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

Jain paryushan parv

  ----जयमाला----


  (दोहा)

  दसलच्छन वंदूं सदा, मनवाँछित फलदाय |

  कहूँ आरती भारती, हम पर होहु सहाय |


  (वेसरी छन्द)

  उत्तम छिमा जहाँ मन होर्इ, अंतर-बाहिर शत्रु न कोर्इ |

  उत्तम मार्दव विनय प्रकासे, नाना भेदज्ञान सब भासे ||

  उत्तम आर्जव कपट मिटावे, दुर्गति त्यागि सुगति उपजावे |

  उत्तम सत्य वचन मुख बोले, सो प्रानी संसार न डोले ||

  उत्तम शौच लोभ-परिहारी, संतोषी गुण-रतन भंडारी |

  उत्तम संयम पाले ज्ञाता, नर-भव सफल करे ले साता ||

  उत्तम तप निरवाँछित पाले, सो नर करम-शत्रु को टाले |

  उत्तम त्याग करे जो कोर्इ, भोगभूमि-सुर-शिवसुख होर्इ ||

  उत्तम आकिंचन व्रत धारे, परम समाधि-दशा विस्तारे |

  उत्तम ब्रह्मचर्य मन लावे, नर-सुर सहित मुकति-फल पावे ||

Das lakshan parv 2020

  (दोहा)

  करे करम की निरजरा, भव-पींजरा विनाशि |

  अजर-अमर पद को लहे, ‘द्यानत’ सुख की राशि ||

  ओंह्रीं श्री उत्तमक्षमा-मार्दव-आर्जव-सत्य-शौच-संयम-तप-त्याग- आकिञ्चन्यब्रह्मचर्येति दशलक्षणधर्माय जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

Jain Story

Das lakshan parv pooja

Jain Story

( 3)क्षमावणी पर्व-पूजा(कविश्री मल्ल)


(छप्पय छन्द)


  अंग-क्षमा जिन-धर्म तनों दृढ़-मूल बखानो |

  सम्यक्-रतन संभाल हृदय में निश्चय जानो ||

  तज मिथ्या-विषमूल और चित निर्मल ठानो |

  जिनधर्मी सों प्रीति करो सब-पातक भानो ||

  रत्नत्रय गह भविक-जन, जिन-आज्ञा सम चालिए |

  निश्चय कर आराधना, कर्मराशि को जालिये ||

  ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्ररूप-रत्नत्रय! अत्र अवतर अवतर संवौषट्!(आह्वाननम्)

  ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्ररूप-रत्नत्रय! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:! (स्थापनम्)।

  ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्ररूप-रत्नत्रय! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्! (सन्निधिकरणम्)।


  नीर सुगन्ध सुहावनो, पदम-द्रह को लाय |

  जन्म-रोग निरवारिये, सम्यक्-रत्न लहाय ||

  क्षमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर-वचन गहाय | क्षमा गहो….||

  ॐ ह्रीं श्री निशंकितांगाय नम:, निकांक्षितांगाय नम:, निर्विचिकित्सांगाय नम:, निर्मूढ़तायै नम:, उपगूहनांगाय नम:, स्थितिकरणांगाय नम:, वात्सल्यांगाय नम:, प्रभावनांगाय नम:, व्यंजनव्यंजिताय नम:,अर्थसमग्रयाय नम:, तदुभय- समग्रयाय नम:, कालाध्ययनाय नम:, उपध्यानोपन्हिताय नम:, विनयलब्धि -सहिताय नम:, गुरुवादापन्हवाय नम:, बहुमानोन्मानाय नम:, अहिंसाव्रताय नम:, सत्यव्रताय नम:, अचौर्यव्रताय नम:, ब्रह्मचर्यव्रताय नम:, अपरिग्रहव्रताय नम:, मनोगुप्त्यै नम:, वचनगुप्त्यै नम:, कायगुप्त्यै नम:, ईर्यासमित्यै नम:, भाषासमित्यै नम:, एषणासमित्यै नम:, आदाननिक्षेपणसमित्यै नम:, प्रतिष्ठापनासमित्यै नम: जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।१।

Jain parv paryushan 

  केसर चंदन लीजिये, संग-कपूर घसाय |

  अलि पंकति आवत घनी, वास सुगंध सुहाय ||

  क्षमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर-वचन गहाय | क्षमा गहो….||

  ॐ ह्रीं श्री अष्टांगसम्यग्दर्शन- अष्टांगसम्यग्ज्ञान-त्रयोदशविध-सम्यक्चारित्रेभ्यो संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ।२।


  शालि अखंडित लीजिए, कंचन-थाल भराय |

  जिनपद पूजूं भाव सों, अक्षय पद को पाय ||

  क्षमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर-वचन गहाय | क्षमा गहो……||

  ॐ ह्रीं श्री अष्टांगसम्यग्दर्शन- अष्टांगगसम्यग्ज्ञान-त्रयोदशविध-सम्यक्चारित्रेभ्यो अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।३।

Jain Story

  पारिजात अरु केतकी, पहुप सुगन्ध गुलाब |

  श्रीजिन-चरण सरोज कूँ, पूज हरष चित-चाव ||

  क्षमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर-वचन गहाय | क्षमा गहो…….||

  ॐ ह्रीं श्री अष्टांगसम्यग्दर्शन-अष्टांगसम्यग्ज्ञान-त्रयोदशविध-सम्यक्चारित्रेभ्यो कामबाण- विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।४।

Paryushan parv 2020

  शक्कर घृत सुरभी तनों, व्यंजन षट्-रस-स्वाद |

  जिनके निकट चढ़ाय कर, हिरदे धरि आह्लाद ||

  क्षमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर-वचन गहाय | क्षमा गहो……..||

  ॐ ह्रीं श्री अष्टांगसम्यग्दर्शन-अष्टांगसम्यग्ज्ञान-त्रयोदशविध-सम्यक्चारित्रेभ्यो क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।५।


  हाटकमय दीपक रचो, बाति कपूर सुधार |

  शोधित घृत कर पूजिये, मोह-तिमिर निरवार ||

  क्षमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर-वचन गहाय | क्षमा गहो…….||

  ॐ ह्रीं श्री अष्टांगसम्यग्दर्शन-अष्टांगसम्यग्ज्ञान-त्रयोदशविध्-सम्यक्चारित्रेभ्यो मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।६।


  कृष्णागर करपूर हो, अथवा दशविध जान |

  जिन-चरणन ढिंग खेइये, अष्ट-करम की हान ||

  क्षमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर-वचन गहाय | क्षमा गहो……..||

  ॐ ह्रीं श्री अष्टांगसम्यग्दर्शन-अष्टांगसम्यग्ज्ञान-त्रयोदशविध्-सम्यक्चारित्रेभ्यो अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।७।


  केला अम्ब अनार फल, नारिकेल ले दाख |

  अग्र धरूं जिनपद तने, मोक्ष होय जिन भाख ||

  क्षमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर-वचन गहाय | क्षमा गहो………||

  ॐ ह्रीं श्री अष्टांगसम्यग्दर्शन-अष्टांगसम्यग्ज्ञान-त्रयोदशविध-सम्यक्चारित्रेभ्यो मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।८।


  जल-फल आदि मिलायके, अरघ करो हरषाय |

  दु:ख-जलांजलि दीजिए, श्रीजिन होय सहाय ||

  क्षमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर-वचन गहाय |

  ॐ ह्रीं श्री अष्टांगसम्यग्दर्शन-अष्टांगसम्यग्ज्ञान-त्रायोदशविध्-सम्यक्चारित्रोभ्यो अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।९।


  जयमाला


  (दोहा)


  उनतिस-अंग की आरती, सुनो भविक चित लाय |

  मन वच तन सरधा करो, उत्तम नर-भव पाय ||१||

  (चौपाई छन्द)


  जैनधर्म में शंक न आने, सो नि:शंकित गुण चित ठाने |

  जप तप का फल वाँछे नाहीं, नि:कांक्षित गुण हो जिस माँहीं ||२||


  पर को देखि गिलान न आने, सो तीजा सम्यक् गुण ठाने |

  आन देव को रंच न माने, सो निर्मूढ़ता गुण पहिचाने ||३||


  पर को औगुण देख जु ढाँके, सो उपगूहन श्रीजिन भाखे |

  जैनधर्म तें डिगता देखे, थापे बहुरि थितिकर लेखे ||४||


  जिन-धर्मी सों प्रीति निबहिये, गऊ-बच्छावत् वच्छल कहिये |

  ज्यों त्यों जैन-उद्योत बढ़ावे, सो प्रभावना-अंग कहावे ||५||


  अष्ट-अंग यह पाले जोई, सम्यग्दृष्टि कहिये सोई |

  अब गुण-आठ ज्ञान के कहिये, भाखे श्रीजिन मन में गहिये ||६||


  व्यंजन-अक्षर-सहित पढ़ीजे, व्यंजन-व्यंजित अंग कहीजे |

  अर्थ-सहित शुध-शब्द उचारे, दूजा अर्थ-समग्रह धारे ||७||


  तदुभय तीजा-अंग लखीजे, अक्षर-अर्थ-सहित जु पढ़ीजे |

  चौथा कालाध्ययन विचारे, काल समय लखि सुमरण धारे ||८||


  पंचम अंग उपधान बतावे, पाठ सहित तब बहु फल पावे |

  षष्टम विनय सुलब्धि सुनीजे, वानी विनयसु पढ़ीजे ||९||


  जापै पढ़ै न लौपै जाई, सप्तम अंग गुरुवाद कहाई |

  गुरु की बहुत विनय जु करीजे, सो अष्टम-अंग धर सुख लीजे ||१०||


  ये आठों अंग ज्ञान बढ़ावें, ज्ञाता मन वच तन कर ध्यावें |

  अब आगे चारित्र सुनीजे, तेरह-विध धर शिवसुख लीजे ||११||


  छहों काय की रक्षा करिए, सोई अहिंसा व्रत चित धरिए |

  हित मित सत्य वचन मुख कहिये, सो सतवादी केवल लहिये ||१२||


  मन वच काय न चोरी करिये, सोई अचौर्य व्रत चित धरिये |

  मन्मथ-भय मन रंच न आने, सो मुनि ब्रह्मचर्य-व्रत ठाने ||१३||


  परिग्रह देख न मूर्छित होई, पंच-महाव्रत-धारक सोई |

  ये पाँचों महाव्रत सु खरे हैं, सब तीर्थंकर इनको करे हैं ||१४||


  मन में विकल्प रंच न होई, मनोगुप्ति मुनि कहिये सोई |

  वचन अलीक रंच नहिं भाखें, वचनगुप्ति सो मुनिवर राखें ||१५||


  कायोत्सर्ग परीषह सहे हैं, ता मुनि कायगुप्ति जिन कहे हैं |

  पंच समिति अब सुनिए भाई, अर्थ-सहित भाषे जिनराई ||१६||


  हाथ-चार जब भूमि निहारें, तब मुनि ईर्या-मग पद धारें |

  मिष्ट वचन मुख बोले सोई, भाषा-समिति तास मुनि होई ||१७||

Jain Story

  भोजन छयालिस दूषण टारे, सो मुनि एषण-शुद्धि विचारे |

  देख के पोथी लें रु धरे हैं, सो आदान-निक्षेपन वरे हैं ||१८||


  मल-मूत्र एकांत जु डारें, परतिष्ठापन समिति संभारें |

  यह सब अंग उनतीस कहे हैं, जिन भाखे गणधरन गहे हैं ||१९||


  आठ-आठ तेरहविध जानो, दर्शन-ज्ञान-चारित्र सु ठानो |

  ता तें शिवपुर पहुँचो जाई, रत्नत्रय की यह विधि भाई ||२०||


  रत्नत्रय पूरण जब होई, क्षमा क्षमा करियो सब कोई |

  चैत माघ भादों त्रय बारा, क्षमा-पर्व हम उर में धारा ||२१||


  (दोहा)


  यह ‘क्षमावणी’-आरती, पढ़े-सुने जो कोय |

  कहे ‘मल्ल’ सरधा करो, मुक्ति-श्रीफल होय ||२२||

  ॐ ह्रीं श्री अष्टांगसम्यग्दर्शन-अष्टांगसम्यग्ज्ञान-त्रयोदशविध सम्यक्चारित्रेभ्यो जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 पहिचानो |

  सहें बान- वरषा बहु सूरे, टिकें न नैन-बान लखि कूरे ||

  कूरे तिया के अशुचि तन में, काम-रोगी रति करें |

  बहु मृतक सड़हिं मसान-माँहीं, काग ज्यों चोंचैं भरें ||

  संसार में विष-बेल नारी, तजि गये जोगीश्वरा |

  ‘द्यानत’ धरम दस पैंडि चढ़ि के, शिव-महल में पग धरा ||

  ओं ह्रीं श्री उत्तम ब्रह्मचर्यधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।


  ----जयमाला----


  (दोहा)

  दसलच्छन वंदूं सदा, मनवाँछित फलदाय |

  कहूँ आरती भारती, हम पर होहु सहाय |


  (वेसरी छन्द)

  उत्तम छिमा जहाँ मन होर्इ, अंतर-बाहिर शत्रु न कोर्इ |

  उत्तम मार्दव विनय प्रकासे, नाना भेदज्ञान सब भासे ||

  उत्तम आर्जव कपट मिटावे, दुर्गति त्यागि सुगति उपजावे |

  उत्तम सत्य वचन मुख बोले, सो प्रानी संसार न डोले ||

  उत्तम शौच लोभ-परिहारी, संतोषी गुण-रतन भंडारी |

  उत्तम संयम पाले ज्ञाता, नर-भव सफल करे ले साता ||

  उत्तम तप निरवाँछित पाले, सो नर करम-शत्रु को टाले |

  उत्तम त्याग करे जो कोर्इ, भोगभूमि-सुर-शिवसुख होर्इ ||

  उत्तम आकिंचन व्रत धारे, परम समाधि-दशा विस्तारे |

  उत्तम ब्रह्मचर्य मन लावे, नर-सुर सहित मुकति-फल पावे ||


  (दोहा)

  करे करम की निरजरा, भव-पींजरा विनाशि |

  अजर-अमर पद को लहे, ‘द्यानत’ सुख की राशि ||

  ओंह्रीं श्री उत्तमक्षमा-मार्दव-आर्जव-सत्य-शौच-संयम-तप-त्याग- आकिञ्चन्यब्रह्मचर्येति दशलक्षणधर्माय जयमाला-



(छप्पय छन्द)


  अंग-क्षमा जिन-धर्म तनों दृढ़-मूल बखानो |

  सम्यक्-रतन संभाल हृदय में निश्चय जानो ||

  तज मिथ्या-विषमूल और चित निर्मल ठानो |

  जिनधर्मी सों प्रीति करो सब-पातक भानो ||

  रत्नत्रय गह भविक-जन, जिन-आज्ञा सम चालिए |

  निश्चय कर आराधना, कर्मराशि को जालिये ||

  ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्ररूप-रत्नत्रय! अत्र अवतर अवतर संवौषट्!(आह्वाननम्)

  ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्ररूप-रत्नत्रय! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:! (स्थापनम्)।

  ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्ररूप-रत्नत्रय! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्! (सन्निधिकरणम्)।


  नीर सुगन्ध सुहावनो, पदम-द्रह को लाय |

  जन्म-रोग निरवारिये, सम्यक्-रत्न लहाय ||

  क्षमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर-वचन गहाय | क्षमा गहो….||

  ॐ ह्रीं श्री निशंकितांगाय नम:, निकांक्षितांगाय नम:, निर्विचिकित्सांगाय नम:, निर्मूढ़तायै नम:, उपगूहनांगाय नम:, स्थितिकरणांगाय नम:, वात्सल्यांगाय नम:, प्रभावनांगाय नम:, व्यंजनव्यंजिताय नम:,अर्थसमग्रयाय नम:, तदुभय- समग्रयाय नम:, कालाध्ययनाय नम:, उपध्यानोपन्हिताय नम:, विनयलब्धि -सहिताय नम:, गुरुवादापन्हवाय नम:, बहुमानोन्मानाय नम:, अहिंसाव्रताय नम:, सत्यव्रताय नम:, अचौर्यव्रताय नम:, ब्रह्मचर्यव्रताय नम:, अपरिग्रहव्रताय नम:, मनोगुप्त्यै नम:, वचनगुप्त्यै नम:, कायगुप्त्यै नम:, ईर्यासमित्यै नम:, भाषासमित्यै नम:, एषणासमित्यै नम:, आदाननिक्षेपणसमित्यै नम:, प्रतिष्ठापनासमित्यै नम: जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।१।


  केसर चंदन लीजिये, संग-कपूर घसाय |

  अलि पंकति आवत घनी, वास सुगंध सुहाय ||

  क्षमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर-वचन गहाय | क्षमा गहो….||

  ॐ ह्रीं श्री अष्टांगसम्यग्दर्शन- अष्टांगसम्यग्ज्ञान-त्रयोदशविध-सम्यक्चारित्रेभ्यो संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ।२।


  शालि अखंडित लीजिए, कंचन-थाल भराय |

  जिनपद पूजूं भाव सों, अक्षय पद को पाय ||

  क्षमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर-वचन गहाय | क्षमा गहो……||

  ॐ ह्रीं श्री अष्टांगसम्यग्दर्शन- अष्टांगगसम्यग्ज्ञान-त्रयोदशविध-सम्यक्चारित्रेभ्यो अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।३।


  पारिजात अरु केतकी, पहुप सुगन्ध गुलाब |

  श्रीजिन-चरण सरोज कूँ, पूज हरष चित-चाव ||

  क्षमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर-वचन गहाय | क्षमा गहो…….||

  ॐ ह्रीं श्री अष्टांगसम्यग्दर्शन-अष्टांगसम्यग्ज्ञान-त्रयोदशविध-सम्यक्चारित्रेभ्यो कामबाण- विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।४।


  शक्कर घृत सुरभी तनों, व्यंजन षट्-रस-स्वाद |

  जिनके निकट चढ़ाय कर, हिरदे धरि आह्लाद ||

  क्षमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर-वचन गहाय | क्षमा गहो……..||

  ॐ ह्रीं श्री अष्टांगसम्यग्दर्शन-अष्टांगसम्यग्ज्ञान-त्रयोदशविध-सम्यक्चारित्रेभ्यो क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।५।


  हाटकमय दीपक रचो, बाति कपूर सुधार |

  शोधित घृत कर पूजिये, मोह-तिमिर निरवार ||

  क्षमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर-वचन गहाय | क्षमा गहो…….||

  ॐ ह्रीं श्री अष्टांगसम्यग्दर्शन-अष्टांगसम्यग्ज्ञान-त्रयोदशविध्-सम्यक्चारित्रेभ्यो मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।६।


  कृष्णागर करपूर हो, अथवा दशविध जान |

  जिन-चरणन ढिंग खेइये, अष्ट-करम की हान ||

  क्षमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर-वचन गहाय | क्षमा गहो……..||

  ॐ ह्रीं श्री अष्टांगसम्यग्दर्शन-अष्टांगसम्यग्ज्ञान-त्रयोदशविध्-सम्यक्चारित्रेभ्यो अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।७।


  केला अम्ब अनार फल, नारिकेल ले दाख |

  अग्र धरूं जिनपद तने, मोक्ष होय जिन भाख ||

  क्षमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर-वचन गहाय | क्षमा गहो………||

  ॐ ह्रीं श्री अष्टांगसम्यग्दर्शन-अष्टांगसम्यग्ज्ञान-त्रयोदशविध-सम्यक्चारित्रेभ्यो मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।८।


  जल-फल आदि मिलायके, अरघ करो हरषाय |

  दु:ख-जलांजलि दीजिए, श्रीजिन होय सहाय ||

  क्षमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर-वचन गहाय |

  ॐ ह्रीं श्री अष्टांगसम्यग्दर्शन-अष्टांगसम्यग्ज्ञान-त्रायोदशविध्-सम्यक्चारित्रोभ्यो अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।९।


  जयमाला


  (दोहा)


  उनतिस-अंग की आरती, सुनो भविक चित लाय |

  मन वच तन सरधा करो, उत्तम नर-भव पाय ||१||

  (चौपाई छन्द)


  जैनधर्म में शंक न आने, सो नि:शंकित गुण चित ठाने |

  जप तप का फल वाँछे नाहीं, नि:कांक्षित गुण हो जिस माँहीं ||२||


  पर को देखि गिलान न आने, सो तीजा सम्यक् गुण ठाने |

  आन देव को रंच न माने, सो निर्मूढ़ता गुण पहिचाने ||३||


  पर को औगुण देख जु ढाँके, सो उपगूहन श्रीजिन भाखे |

  जैनधर्म तें डिगता देखे, थापे बहुरि थितिकर लेखे ||४||


  जिन-धर्मी सों प्रीति निबहिये, गऊ-बच्छावत् वच्छल कहिये |

  ज्यों त्यों जैन-उद्योत बढ़ावे, सो प्रभावना-अंग कहावे ||५||


  अष्ट-अंग यह पाले जोई, सम्यग्दृष्टि कहिये सोई |

  अब गुण-आठ ज्ञान के कहिये, भाखे श्रीजिन मन में गहिये ||६||


  व्यंजन-अक्षर-सहित पढ़ीजे, व्यंजन-व्यंजित अंग कहीजे |

  अर्थ-सहित शुध-शब्द उचारे, दूजा अर्थ-समग्रह धारे ||७||


  तदुभय तीजा-अंग लखीजे, अक्षर-अर्थ-सहित जु पढ़ीजे |

  चौथा कालाध्ययन विचारे, काल समय लखि सुमरण धारे ||८||


  पंचम अंग उपधान बतावे, पाठ सहित तब बहु फल पावे |

  षष्टम विनय सुलब्धि सुनीजे, वानी विनयसु पढ़ीजे ||९||


  जापै पढ़ै न लौपै जाई, सप्तम अंग गुरुवाद कहाई |

  गुरु की बहुत विनय जु करीजे, सो अष्टम-अंग धर सुख लीजे ||१०||


  ये आठों अंग ज्ञान बढ़ावें, ज्ञाता मन वच तन कर ध्यावें |

  अब आगे चारित्र सुनीजे, तेरह-विध धर शिवसुख लीजे ||११||


  छहों काय की रक्षा करिए, सोई अहिंसा व्रत चित धरिए |

  हित मित सत्य वचन मुख कहिये, सो सतवादी केवल लहिये ||१२||


  मन वच काय न चोरी करिये, सोई अचौर्य व्रत चित धरिये |

  मन्मथ-भय मन रंच न आने, सो मुनि ब्रह्मचर्य-व्रत ठाने ||१३||


  परिग्रह देख न मूर्छित होई, पंच-महाव्रत-धारक सोई |

  ये पाँचों महाव्रत सु खरे हैं, सब तीर्थंकर इनको करे हैं ||१४||


  मन में विकल्प रंच न होई, मनोगुप्ति मुनि कहिये सोई |

  वचन अलीक रंच नहिं भाखें, वचनगुप्ति सो मुनिवर राखें ||१५||


  कायोत्सर्ग परीषह सहे हैं, ता मुनि कायगुप्ति जिन कहे हैं |

  पंच समिति अब सुनिए भाई, अर्थ-सहित भाषे जिनराई ||१६||


  हाथ-चार जब भूमि निहारें, तब मुनि ईर्या-मग पद धारें |

  मिष्ट वचन मुख बोले सोई, भाषा-समिति तास मुनि होई ||१७||


  भोजन छयालिस दूषण टारे, सो मुनि एषण-शुद्धि विचारे |

  देख के पोथी लें रु धरे हैं, सो आदान-निक्षेपन वरे हैं ||१८||


  मल-मूत्र एकांत जु डारें, परतिष्ठापन समिति संभारें |

  यह सब अंग उनतीस कहे हैं, जिन भाखे गणधरन गहे हैं ||१९||


  आठ-आठ तेरहविध जानो, दर्शन-ज्ञान-चारित्र सु ठानो |

  ता तें शिवपुर पहुँचो जाई, रत्नत्रय की यह विधि भाई ||२०||


  रत्नत्रय पूरण जब होई, क्षमा क्षमा करियो सब कोई |

  चैत माघ भादों त्रय बारा, क्षमा-पर्व हम उर में धारा ||२१||


  (दोहा)


  यह ‘क्षमावणी’-आरती, पढ़े-सुने जो कोय |

  कहे ‘मल्ल’ सरधा करो, मुक्ति-श्रीफल होय ||२२||

  ॐ ह्रीं श्री अष्टांगसम्यग्दर्शन-अष्टांगसम्यग्ज्ञान-त्रयोदशविध सम्यक्चारित्रेभ्यो जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

Jain Story

______________________________________________

 यह भी देखें ⬇️⬇️⬇️⬇️⬇️⬇️

kshamavani parv 2020|| 

Paryushan Parv wishes 2020 

______________________________________________
  • Paryushan parv
  • paryushan parv 2020
  • das lakshan parv
  • jain paryushan parv 2020
  • jain paryushan parv
  • digambar jain paryushan parv 2020
  • parv paryushan
  • jain parv
  • dus lakshan parv
  • paryushan parv 2020
  • paryushan parv in hindi
  • paryushan parv jain
  • Paryashan parv

  

 

Reactions

Post a Comment

0 Comments