Uttam brahmcharya dharm : उत्तम ब्रह्मचर्य स्टेटस,स्टोरी,quotes
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उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म
भाद्रमाह के सुद चौदस को दिगंबर जैन समाज के पवाॅधिराज पर्यूषण दसलक्षण पर्व का दसवाँ दिन होता है!
इस दिन को अनंत चतुर्दशी कहते हैं! इस दिन को लोग परमात्मा के समक्ष अखंड दिया लगाते हैं!
ब्रह्मचर्य हमें सिखाता है कि उन परिग्रहों का त्याग करना, जो हमारे भौतिक संपर्क से जुडी हुई हैं!
जैसे जमीन पर सोना न कि गद्दे तकियों पर, जरुरत से ज्यादा किसी वस्तु का उपयोग न करना, व्यय, मोह, वासना ना रखते हुए सादगी से जीवन व्यतीत करना ॥
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कई सन्त इसका पालन करते हैं और विशेषकर जैन-संत शरीर, जुबान और दिमाग से सबसे ज्यादा इसका ही पालन करते हैं ॥
'ब्रह्म' जिसका मतलब आत्मा, और 'चर्या' का मतलब "रखना", इसको मिलाकर ब्रह्मचर्य शब्द बना है, ब्रह्मचर्य का मतलब अपनी आत्मा में रहना है ॥
ब्रह्मचर्य का पालन करने से आपको पूरे ब्रह्मांड का ज्ञान और शक्ति प्राप्त होगी और ऐसा न करने पर, आप सिर्फ अपनी इच्छाओं और कामनाओं के गुलाम ही रहेंगे॥
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ब्रह्मचर्य के अर्थ :
*ब्रह्म का अर्थ होता है -आत्मा। आत्मा की उपलब्धि के लिए किया जाने वाला आचरण ब्रह्मचर्य कहलाता है। मतलब, जो अपनी आत्मा के जितना नजदीक है वह उतना बड़ा ‘ब्रह्मचारी’ है और जो आत्मा से जितना अधिक दूर है वह उतना बड़ा ‘भ्रमचारी’ है।
*ब्रह्मचर्य एक बहुत बड़ी साधना है क्योंकि इसका स्व-प्रेरणा से पालन किया जाता है, किसी बाहरी दबाव से नहीं।
*ब्रह्मचर्य बहुत उच्च आध्यात्मिक साधना है और ब्रह्मचर्य का सम्बन्ध केवल यौन सदाचार या यौन-संयम तक सीमित नहीं है; अपितु ब्रह्मचर्य तो विशुद्ध आध्यात्मिक दृष्टि से सम्पन्न होकर जीना है।
*केवल स्त्री-पुरुष का एक दूसरे से दूर हट जाना ही ब्रह्मचर्य नहीं है बल्कि देह-दृष्टि से ऊपर उठने का नाम ब्रह्मचर्य है।
*ब्रह्मचर्य का मतलब है आँखों में पवित्रता।
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उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म.
उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म - ब्रह्म = आत्मा, ब्रह्म मे चर्या करना अर्थात आत्मा मे रहना, रमना। बाह्य इन्द्रिय विषय, काम वासना को छोड स्वभाव मे रहना, निश्चयसे ब्रह्मचर्य कि यही व्याख्या है। व्यवहारसे परस्त्री, परपुरुष, वेश्यागमन, अयोग्य काल मे कामसेवन, अयोग्य रितीसे काम सेवन करना - आदि का त्याग कर निजस्त्री । पुरुष मे प्रामाणिक रहनेसे ब्रह्मचर्य का प्रारंभ होगा, फिर एकदेश, एककाल कामसेवन का त्याग करके विशुध्द परिणामो कि ओर बढते हुए सर्वदेश, सर्वकाल त्याग करनेसे ब्रह्मचर्य कि बाह्य पुर्तता होगी। दृष्टी आत्मा कि ओर ले जाने के लिये ब्रह्मचर्य एक शक्ति सिध्द होता है।
ब्र्ह्मचर्य को मात्र कामसेवन से जोडने कि गलती ना करे, जब तक इंद्रियविषय से विरक्ती ना हो तब तक ब्रह्मचर्य कि शुरुवात भि नही होगी। जेवर पहनना, इत्र लगाना, चलचित्रादि मे रुचि रखना, तलम वस्त्र, मुलायम शय्या आसन का उपयोग, गरिष्ट भोजन आदि सर्व इंद्रिय विषयोंसे विरक्ती भि ब्रह्मचर्य के अनिवार्य है। परवस्तु से किंचीत भि आसक्ती ब्रह्म का घात है।
जो बाह्य वस्तुओं निवृत्त होकर अपने आत्मा मे आनंद देखे, जाने और रमण करे वही ब्र्ह्मचारी है। गृहत्याग करके उद्योगोंको चलाना ब्रह्मचारी का काम नही, वह तो व्र्त मे अनाचार है।
ब्रह्मचर्य आत्मा के निकट रखता है, परभाव से विन्मुख करता है। स्वभाव कि परिणती ब्रह्मचर्य है और ब्रह्मचर्य कि परिणती स्वभाव है।
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Uttam brahmcharya story
कामसेवन का मन से, वचन से तथा शरीर से परित्याग करके अपने आत्मा में रमना ब्रह्मचर्य है।
संसार में समस्त वासनाओं में तीव्र और दुद्र्वर्ष कामवासना है। इसी कारण अन्य इन्द्रियों का दमन करना तो बहुत सरल है किन्तु कामवासना की साधन भूत काम इन्द्रिय का वश में करना बहुत कठिन है। छोटे-छोटे जीव जन्तुओं से लेकर बड़े से बड़े जीव तक में विषयवासना स्वाभाविक (वैभाविक) रूप से पाई गई है। सिद्धांत ग्रन्थों ने भी मैथुन स्ंज्ञा एकेन्द्रिय जीवों में भी प्रतिपादन की है।
कामातुर जीव का मन अपने वश में नहीं रहता। उसकी विवेकशक्ति नष्ट-भ्रष्ट हो जाती है। पशु तो कामवासना के शिकार होकर माता, बहिन, पुत्री, स्त्री आदि का भेदभाव करते ही नहीं। सभी को समान समझ कर सबसे अपनी कामवासना तृप्त करते रहते हैं। इसी कारण उन्हें पशु (समान पश्यति इति पशु) कहते हैं। परंतु कामातुर मनुष्य भी कभी कभी पशु सा बन जाता है। कवि ने कहा है-
दिवा पश्यति नीलूको मनुजो रात्रि न पश्यति।
अपूर्वः कोपि कामान्धो दिवारात्रं न पश्यति।।
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उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म: समस्त विषयों में अनुराग छोड़कर ब्रह्म जो ज्ञायक स्वभाव आत्मा उसमें चर्या अर्थात प्रवृत्ति करना वह ब्रह्मचर्य हैं। ब्रह्मचर्य बिना व्रत – तप समस्त निस्सार है। कुशील महापाप है, संसार परिभ्रमण का बीज है। ब्रह्मचर्य के पालनेवाले से हिंसादि पापों का प्रचार दूर भागता है। इसमें सभी गुणों की संपदा निवास करती है, इससे जितेन्द्रीयपना प्रकट होता है। ब्रह्मचर्य से कुल – जाति आदि भूषित होते हैं, परलोक में अनेक ऋद्धियों का धारक देव होता है।
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