उत्तम तप धर्म क्या है - uttam tap dharm kya hai

उत्तम तप धर्म क्या है - uttam tap dharm kya hai

uttam tap dharm kya hai
uttam tap dharm kya hai

उत्तम तप धर्म क्या है

 उत्तम तप धर्म: समस्त रागादी परभावों की इच्छा के त्याग द्वारा स्व-स्वरुप में प्रतापन करना-विजयन करना तप है| तात्पर्य ये है की समस्त रागादी भावों के त्यागपूर्वक आत्मस्वरूप में - अपने में लीं होना अर्थार्थ आत्मलीनता द्बारा विकारों पर विजय प्राप्त करना तप है| करोडो जन्मो तक तपस्या करने पर भी उसने कर्मो का नाश नहीं होता जितना की ज्ञान के साथ मन वचन काय की संयम से तपस्या करने पर एक साथ करोडो कर्म सिर्फ एक क्षण मात्र में नष्ट हो जाते है ! बिना सम्यकदर्शन - सम्यकज्ञान के कितनी बार तपस्या की, लेकिन आत्म ज्ञान के बिना सुख नाम मन्त्र का नहीं मिला !

आज उत्तम तप धर्मं - स्वाधाये परम तप: - Supreme Austerity *MUST READ*

कोटि जन्म तप तपै, ज्ञान बिन कर्म झरै जे ! ज्ञानी के छीन माहि, त्रिगुप्ति तै सहज टरै ते !
मुनिव्रत धार अनंत बार, ग्रीवक उपजायो ! पै निज आत्म ज्ञान बिना, सुख लेश न पायो !

उत्तम तप धर्म 

uttam tap dharm kya hai


... करोडो जन्मो तक तपस्या करने पर भी उसने कर्मो का नाश नहीं होता जितना की ज्ञान के साथ मन वचन काय की संयम से तपस्या करने पर एक साथ करोडो कर्म सिर्फ एक क्षण मात्र में नष्ट हो जाते है ! बिना सम्यकदर्शन - सम्यकज्ञान के कितनी बार तपस्या की, लेकिन आत्म ज्ञान के बिना सुख नाम मन्त्र का नहीं मिला...संयम ग्रहण करना चाहिए लेकिन साथ में स्वधाय भी करना है...ग्रन्थ पढने से विश्वास पक्का होता है...जिनेन्द्र देव ने जिस धर्मं को कहा उसका मर्म क्या है..सब कुछ पता चलता है...आज कल "HARD WORK" नहीं "SMART WORK" का जमाना है तो कर्मो को नष्ट करने के मामले में भी अगर SMART होना चाहते हो तो स्वधाय करो ग्रन्थ पढो..तो पता चलेगा की कर्मो को कैसे जल्दी जल्दी नष्ट किया जासकता है !

संसार में बिना तप के कुछ नहीं मिलता और ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे तप से प्राप्त न किया जा सके ! तप का लक्ष्य कर्मक्षय एवं इच्छाऔ का विरोध है ! इस लक्ष्य के साथ जो अन्तरंग और बहिरंग प्रकार से तपस्या करता है वह कर्मो की निर्जरा करने में भी समर्थ होता है ! नाम, ख्याति या व्यक्तिगत लाभ के लिए किया तप पतन की और ले जाने वाला है ! - परम पूज्य मुनि श्री सुधा सागर जी महाराज

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दशलक्षण धर्म का सातवाँ दिन है- उत्तम तप धर्मांग


आज उत्तम तप धर्म का दिन है। कर्मों के क्षय के लिये जो तपा जाता है , उसे तप कहते हैं। इच्छा निरोधः तपः अर्थात् इच्छाओं को रोकना या जीतना ही तप हैं।

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हम कह सकते हैं संयम में भी इच्छाओं पर नियंत्रण रखना था और तप में भी वही करना है तो इनमें अंतर क्या है ?

यदि संवर और तप में अंतर न होता तो आचार्य भगवन इनका वर्णन अलग-अलग क्यों करते ?

समाधान– सच्चा तप संवर पूर्वक ही होता है। संवर में इच्छाओं पर नियंत्रण किया , यानि इच्छायें सीमित हुई , जबकि तप अर्थात् ऐसे भाव जिससे इच्छाओं का निरोध हुआ , यानि इच्छाऐं उत्पन्न ही नहीं हुई। कहने का अभिप्राय यही है कि जब इच्छायें उत्पन्न ही नहीं होगी तो नियंत्रण का सवाल ही नहीं आयेगा , वही सच्चा तप है। और ‘तपसा निर्जरा च’और यही सच्चा तप निर्जरा का कारण है।

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“बारस अणुवेक्खा” ग्रंथ में तप का स्वरूप बताते हुये आचार्य कहते हैं–

“पाँचों इन्द्रियों के विषयों तथा चारों कषायों को रोककर शुभध्यान की प्राप्ति के लिये जो अपनी आत्मा का विचार करता है , उसके नियम से तप होता है।”

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उत्तम तप


भाद्रमाह के सुद ग्यारस को दिगंबर जैन समाज के पवाॅधिराज पर्यूषण दसलक्षण पर्व का सातवाँ दिन होता है!


(क) तप का मतलब सिर्फ उपवास में भोजन नहीं करना, सिफॅ इतना ही नहीं, बल्कि तप का असली मतलब है कि इन सभी क्रिया-कलापों के साथ अपनी इच्छाओं और ख्वाहिशों को वश में रखना! ऐसा तप अच्छे गुणवान कर्मों में वृद्धि करता है ॥

(ख) साधना इच्छाओं की वृद्धि नहीं करने का एकमात्र मागॅ है ॥



पहले तीर्थंकर भगवान आदिनाथ ने करीब छह महीनों तक ऐसी तप-साधना (बिना खाए बिना पिए) की थी और परम आनंद मोक्ष को प्राप्त किया था ॥


हमारे तीर्थंकरों जैसी तप-साधना करना इस जमाने में शायद मुमकिन नहीं है, पर हम भी ऐसी ही भावना रखते हैं और पर्यूषण पवॅ के 10 दिनों के दौरान उपवास (बिना खाए बिना पिए), एकाशन (एकबार खाना-पानी) करतें हैं और परम आनंद मोक्ष को प्राप्त करने की राह पर चलने का प्रयत्न करते हैं ॥

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Penance (Uttam Tap) : उत्तम तप

(A) इसका अर्थ केवल उपवास ही नहीं है, बल्कि कम किया हुआ आहार, कुछ प्रकार के खाद्य पदार्थों पर प्रतिबंध, स्वादिष्ट खाद्य पदार्थों से बचना आदि है। तपस्या का उद्देश्य इच्छाओं और जुनून को नियंत्रण में रखना है।  अति-भोग अनिवार्य रूप से दुख की ओर ले जाता है।  तपस्या से मेधावी कर्मों की आमद होती है।

(B) ध्यान आत्मा में इच्छाओं और जुनून के उदय को रोकता है।  ध्यान की गहरी अवस्था में भोजन ग्रहण करने की इच्छा उत्पन्न नहीं होती है।  कहा जाता है कि पहले तीर्थंकर, ऋषभ ने छह महीने तक ऐसी अवस्था में ध्यान किया, जिसके दौरान उन्होंने निश्चय उत्तपम तप किया।

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