Uttam tyag dharam
आत्मशुद्धि के उद्देश्य से विकार भाव छोड़ना तथा स्व-पर उपकार की दृष्टि से धन आदि का दान करना उत्तम त्यागधर्म है। अतः भोग में लाई गई वस्तु को छोड़ देना भी त्याग धर्म है। आध्यात्मिक दृष्टि से राग द्वेष क्रोध मान आदि विकार भावों का आत्मा से छूट जाना ही त्याग है। उससे नीची श्रेणी का त्याग धन आदि से ममत्व छोड़कर अन्य जीवों की सहायता के लिये दान करना है।
उत्तम त्याग धर्म क्या है
त्याग भी धर्म का अंग है, वह भंग रहित है, तप गुण से युक्त, अत्यन्त पवित्र पात्र के लिए अपनी शक्ति के अनुसार भक्तिपूर्वक त्यागदान देना चाहिए, क्योंकि वह पात्र अन्य गति के लिये पाथेय के समान है ऐसा समझो। त्याग—दान से अवगुणों का समूह दूर हो जाता है, त्याग से निर्मल र्कीित फैलती है, त्याग से बैरी भी चरणों में प्रणाम करता है और त्याग से भोगभूमि के सुख मिलते हैं। विनयपूर्वक बड़े प्रेम से शुभवचन बोलकर नित्य ही त्याग—दान देना चाहिए। सर्वप्रथम अभय दान देना चाहिए जिससे परभव के दु:खों का नाश हो जाता है। पुन: दूसरा शास्त्र दान करना चाहिए, जिससे निर्मल ज्ञान प्राप्त होता है। रोग को नष्ट करने वाला औषधि दान देना चाहिए, जिससे कभी भी व्याधियों की प्रगटता नहीं होती है। आहार दान से धन और ऋद्धियों की प्राप्ति होती है, यह चार प्रकार का त्याग—दान सनातन परम्परा से चला आ रहा है अथवा दुष्ट विकल्पों के त्याग करने से उत्तम त्याग धर्म होता है। समुच्चयरूप से इसे त्याग धर्म मानो। दु:खी जनों का दान देना चाहिए, गुणी जनों का मान—सम्मान करना चाहिए, भंगरहित एकमात्र दया की भावना करनी चाहिए और मन में सतत सम्यग्दर्शन का चितवन करना चाहिए।
दसलक्षण धर्म --> (उत्तम त्याग धर्म)
जय जिनेन्द्र,
दसलक्षण पर्व में आज "उत्तम त्याग धर्म" का दिन है !!!
8- उत्तम त्याग धर्म :-
- अंतरंग और बहिरंग दोनों प्रकार के परिग्रहों का त्याग उत्तम त्याग है !
#व्यवहार
साधु, मुनि, व्रती, गुरु जान आदि को उनके दर्शन, ज्ञान और चरित्र की वृद्धि के लिए "भक्तिभाव से" और दुखित, भूखे, अंगहीन, हीनदरिद्रियों को "करुणाभाव से" भूख-प्यास में आहार-जल देना, रोग अवस्था में शुद्ध औषधि देना, विद्याविलाषियों को शास्त्र देना और भयभीत जीवों को अभय दान देना, उत्तम त्याग धर्म है !
#निश्चय
अपनी आत्मा से अनादिकाल से लगे हुए राग-द्वेष-मोहादि परभावों, जिनके कारण वह अनंत काल से संसार में भटक रहा है, से छुड़ाकर मुक्त कर देना ही उत्तम त्याग धर्म कहा है !
- जिनागम में 4 प्रकार का दान बतलाया है :-
१ :- आहार दान
२ :- औषधि दान
३ :- शास्त्र दान
४ :- अभय दान
- त्यागी और साधुओं को चारों प्रकार का दान देना, विषय-कषायों को त्यागना उत्तम त्याग है !
- परोपकार के लिए अपने साधन(द्रव्य आदि) का त्याग भी इसी श्रेणी में आता है !
#ध्यान दें :-
दान के सन्दर्भ में :
- पात्र - जिसे दान दिया जा रहा है !
- दाता - जो दान दे रहा है !
- द्रव्य - जो दान दिया जा रहा है !
और,
- विधि का विशेष महत्व है !
#पुनः: ध्यान दें :-
- दान या त्याग में किसी भी प्रकार का आकांक्षा, पछतावा, प्रदर्शन, अहंकार, हिंसा और किसी भी प्रकार का कोई उदेश्य यदि हो तो वह दान नहीं, त्याग नहीं !
- जिस वस्तु की अब मुझे ज़रूरत नहीं उसे किसी को दे देना त्याग नहीं है !
- हमे प्रतिदिन अपनी यथा-शक्ति अनुसार आहार, औषधि, अभय और ज्ञान-दान धर्म-पात्रों को भक्ति भाव से देना चाहिए.
अपनी कमाई मे से कुछ हिस्सा हमे ज़रूर दान करना चाहिए.
- जहाँ त्याग की भावना होगी वहां क्रोध-मान-माया और लोभ स्वयं ही विनश जायेगा !
- चोरी-कुशील-परिग्रह रूपी पाँचों पाप भावों का अभाव हो सुखमयी संतोष प्रकट हो जायेगा !
- जो पाप हम परिग्रह के संचय मे तथा आरंभ कार्यों मे लिप्त होने क कारण इक्कट्ठे करते हैं, दान उस पाप के भार को हल्का करता है...
निश्चय से मोह राग द्वेष कषाय आदि विकारी भावो का त्याग करके अपने स्वरूप् में लीन होना उत्तम त्याग धर्म है ।
--- उत्तम त्यागधर्म की जय ---
उत्तम त्याग धर्म :
उत्तम त्याग धर्म की चर्चा जब भी चलती है, तब तब पराया दान को ही त्याग समझ लिया जाता है| त्याग के नाम पर दान के ही गीत गाये जाने लगते हैं, दान की ही प्रेरणाएं दी जाने लगती हैं| त्याग एक ऐसा धर्म है, जिसे प्राप्त कर यह आत्मा अकिंचन यानि अकिन्चन्य धर्म की धारी बन जाती है, पूर्ण ब्रह्म में लीन होने लगती है, हो जाती है और सारभूत आत्म्स्वभाव को प्राप्त कर लेती है|
उत्तम त्याग
भाद्रमाह के सुद बारस को दिगंबर जैन समाज के पवाॅधिराज पर्यूषण दसलक्षण पर्व का आठवाँ दिन होता है!
'त्याग' शब्द से ही पता लग जाता है कि इसका मतलब छोडना है और जीवन को संतुष्ट बना कर अपनी इच्छाओं को वश में करना है!
यह न सिर्फ अच्छे गुणवान कर्मों में वृद्धि करता है, बल्कि बुरे कर्मों का नाश भी करता है ॥
छोडने की भावना जैन धर्म में सबसे अधिक है, क्योंकि जैन-संत सिफॅ अपना घर-बार ही नहीं, बल्कि (यहां तक कि) :अपने कपडे भी त्याग देता है और पूरा जीवन दिगंबर मुद्रा धारण करके व्यतीत करता है ॥
इन्सान की शक्ति इससे नहीं परखी जाती है कि उसके पास कितनी धन -दौलत है, बल्कि इससे परखी जाती है कि उसने कितना छोडा है, कितना त्याग किया है !
उत्तम त्याग धर्म हमें यही सिखाता है कि मन को संतोषी बनाकर के ही इच्छाओं और भावनाओं का त्याग करना मुमकिन है ॥ त्याग की भावना भीतरी आत्मा को शुद्ध बनाने पर ही होती है ॥
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